एकता कपूर की धारावाहिक "सास भी कभी बहू थी" शायद इस उद्देश्य से बनाया गया था कि मनोरंजन के साथ साथ लोग जान सके कि बहू को किन किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है और बहू जब सास बने तब वह बहू को उस प्रकार से प्रताड़ित न करे वरन उसे एक बेटी समझ कर हर मुसीबत में उसका सहारा बने। धारावाहिक तो बहुत लोकप्रिय हुआ और उसकी उसकी बहू तुलसी (स्मृति ईरानी ) आज सांसद बन गयी परन्तु भारत की सास और बहू ,वहीँ के वहीँ हैं।दोनों के रिस्ते जैसे थे वैसे ही है -चूहे बिल्ली के रिश्ते जैसे।
मुझे पता नहीं यह किसने कहा है कि " औरत ही औरत का दुश्मन है"।जिसने भी कहा हो ,वह निश्चय ही सास -बहू के रिश्ते जैसे रिश्तों को देख कर ही कहा होगा। आइए जरा देखते हैं कि बहू को सास बनने तक किन किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है।
लड़की जब मायके में रहती है तो उसे देखने होनेवाली सास ,ससुर ,ननद,पति ,जेठ,जेठानी सभी आयेंगे । सभी एक साथ या फिर बारी बारी और अपनी अपनी दृष्टी कोण से उसे नापेंगे। किसी को वह साँवली लगती है तो किसी को गोरी ,किसी को लम्बी लगती है तो किसी को ठिगनी।किसी को उसकी बात अच्छी नहीं लगती और किसी को उसकी चलना।ननद को तो वह नकचड़ी लगती है। लड़की को इस परिस्थिति का सामना कई बार करना पड़ता है क्योंकि एक बार में तो शादी तय नहीं होती। इस प्रकार लड़की को गुडिया जैसे सजा संवर कर कई बार अलग अलग लोगों के सामने पेश किया जाता है जैसे कोई वस्तु बाजार में बेचने के लिए रख दिया जाता है। किसी खरीददार की मर्जी हुई, खरीद लिया नहीं तो पड़ा रहा।लड़की की हालत भी वैसी होती है। बार बार अस्वीकृत किये जाने से उसका आत्मबल गिरता है।उसके आत्म सम्मान में ठेस पहुँचती है। आज लड़कियां पढ़ लिख कर शिक्षित हो गई हैं फिर भी लड़कियों की परिस्थिति में परिवर्तन नहीं हुआ है।पढीलिखी बहू जब सास बनती है ,वह भी वही पुरानी रीति रिवाज को अपनाती है। क्या कोई नई तरीका सोच नहीं सकती, जिससे लड़की को कोई मानसिक आघात न लगे?
दूसरी समस्या है दहेज की। यदि लड़की होनेवाली सास को पसंद आ गई तो बड़ी आराम से कहेगी -हमारे बेटे के लिए तो बहुत से रिश्ते आ रहे हैं और वे लोग कार ,फ्रिज ,टी .वी ,इत्यादि देने के लिए तैयार हैं लेकिन हमने तो मन कर दिया। हमको तो एक अच्छी बहू नहीं एक अच्छी बेटी चाहिए।हमें हमारी बेटी मिल गई आपके घर में। हमारे घर में वह बेटी बनके रहेगी। लेकिन क्या है न बहन जी(भाई साहब) लोग तो उसे हमारी बहू ही समझेंगे न ? हम समाज में रहते है तो समाज के आचार विचार,रीतिरिवाज को मानना ही पड़ता है न? आप भी सम्मान की रक्षा के लिए उसे खाली हाथ नहीं भेजेंगे। लोग कहेंगे किस कंगाल की बेटी को उठा लाये हो? इससे बहु का असम्मान होगा न ? इसलिए आप अपनी, हमारी और बेटी का सम्मान का ख्याल रखियेगा। हमारे पास तो सबकुछ है ,हमें कुछ नहीं चाहिए। जो भी देना है अपनी बेटी को दीजिये ,वे सब उसके ही काम आयेंगे।
बस हो गई मुसीबत बेचारे माँ बाप की। शायद यही स्थिति आज की सास के सामने आई होगी जब उसकी शादी की बात हुई होगी।उसके माँ बाप को भी ऐसी ही परिस्थिति का सामन करना पड़ा होगा। परन्तु सास ने उससे कोई सीख ली ? नहीं, वह भी आज वही कर रही जो उसके सास ने उसके माँ बाप से किया था।शायद अब वह अपनी बहू से बदला ले रही है।
शादी हो गई। बहू घर आ गई। अब शुरू हुआ दूसरा रिवाज , मुहँ दिखाई।मुहं दिखाई में औरतों को दुल्हन को कम दुल्हन के साथ आई चीजों को देखने में ज्यादा रूचि होती है।कहीं कहीं तो सब वस्तुयों को एक कमरे में सजा कर रख दिया जाता है और हरेक औरत को चीजो की गुणवत्ता और कीमत विस्तार से बताई जाती है।कीमत जितनी ऊँची होगी,सास की नाक भी उतनी ऊँची हो जाती है। चीजे चाहे कितनी अच्छी हो सास उसमे खामियां निकालना नहीं भूलती जिससे बहू के माँ बाप को नीचा दिखा सके। सचमुच में यदि किसी वस्तु में खामी नजर आई तो बहू का खैर नहीं।यहीं से शुरू हो जाती है बहू की पीड़ा। वैसे मुहँ दिखाई दी रस्म आज एक बेतुकी रस्म है। पुराने ज़माने में दुल्हन का चेहरा घूँघट में ढका रहता था इसलिए उसे अलग से देखने के लिए औरते आती थी। लेकिन आजकल तो दुल्हन का हँसता हुआ खीला खीला चेहरा तो पुरे बाराती और घराती को पहले ही दिखाई देता है। फिर यह मुहं दिखाई की नौटंकी क्यों? क्या सास मुहं दिखाई और चीजो की नुमाईस बंद नहीं कर सकती ?
विवाह के बाद बहू और बेटे में घनिष्टता होना स्वाभाविक है।वे एक दूसरे को अधिक से अधिक समय देना चाहते हैं। इस कारण माँ को पहले जैसा ज्यादा समय नहीं दे पाता ,इससे कुछ माँ को लगता है कि बेटा हाथ से निकल गया। इसमें घी डालने का काम तथाकथित हितैसी पड़ोसिन या सास की कोई दोस्त करती है। वह कहेगी -अरे ! विमला सुना तुमने ? सरला का बेटा था न ? वह शादी के बाद अब माँ की नहीं सुनता ,अपनी बीवी की बातों में ही नाचता रहता है। तुम अपने बेटे पर अपना कंट्रोल रखना अन्यथा बेटा हाथ से निकल जायेगा। बस अब क्या ? सास लग जाती है बहू और बेटे में फ़ुट दालने के काम में। पुनरावृत्ति होती है पुराणी कहानी की, क्यों कि सास भूल चुकी होती है अपनी जवानी की परेशानी। सास की इस साजिस में कभी कभी उनकी बेटी अर्थात बहू की ननद भी योगदान दे देती है।अब जटिला और कुटिला की जोड़ी मिलकर बहू को तंग कर एक ज़िंदा लाश बना देती है और कभी कभी तो जलाकर सचमुच का लाश बना देती है। सास यह भूल जाती है कि उसकी भी बेटी किसी के घर की बहू बनेगी।
यदि बहू ने इन कठिनाइयों को पार कर लिया तो अगला पढ़ाव होता है संतान। यदि बहू ने लड़का पैदा किया तो वह गृहलक्ष्मी है।आदर सत्कार का पात्र है। परन्तु यदि लड़की हुई तो वह कुलक्षनी है।वह अपशकुन है।वंश चलने लायक नहीं है। न जाने कौन कौन से उपाधियों से नवाज़ा जाता है। लड़की पैदा होते ही उसके दुर्दशा के दिन शुरू हो जाता है। सास यह भूल जाती है की वह भी एक लड़की के रूप में जनम लिया था और अब वह एक वंश चला रही है। वास्तव में नारी हो या पुरुष, अकेला कोई वंश चला नहीं सकता। नारी पुरुष मिलकर ही वंश चलाते हैं। जहाँ तक पुत्र की बात है ,विज्ञानं ने साबित कर दिया है कि पुत्र या पुत्री होने में बहू जिम्मेदार नहीं है वरन बेटा ही जिम्मेदार है।आज के पढीलिखी सास को इस बात को समझना चाहिए और बहूयों को दोषमुक्त कर देना चाहिए।उनको सताने के बदले लड़के की इलाज करना चाहिए। वैज्ञानिक तत्त्व पर आधारित इस सत्य को भी न मान कर यदि सास लड़की पैदा करने के लिए बहू को दोषी मान कर ,उसे परेशान करती है तो फिर यही मानना पड़ेगा कि "औरत ही औरत का दुश्मन है"।
जिस दिन हर सास यह प्रण कर ले कि वह अपने बेटे की शादी में न दहेज़ लेगी न बेटी के शादी में दहेज़ देगी, उस दिन भारत में भ्रूण हत्या ,दहेज़ हत्या ,लड़के लड़कियों में विषमता जैसे कुरीतियाँ समाज से छूमंतर हो जाएगी। जिस दिन सास माँ बनकर ,बहू यदि कोई गलती करे तो उसे समझा बुझा कर बेटी बना लेगी उस दिन लड़की के लिए मायका और ससुराल का अंतर समाप्त हो जायेगा। जरुरत इस बात की है कि समाज में मौलिक सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए हर सास हिम्मत से इन बुराईयों के विरुद्ध आवाज उठायें ,महिलाओं को संगठित करें और अपने जीवन में इन आदर्शों का पालन करें।तभी यह कहावत झूठी साबित होगी कि "औरत ही औरत का दुश्मन है"।
कालीपद "प्रसाद "
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