13.9.12

सार्वजनिक पूजा

                 

 आलीशान पंडाल
                                                                                         


                              बचपन में माँ को प्रतिदिन पूजा करते देखा है। घर के  एक कोने में एक छोटा सा मंदिर जिसमें  वह नहा धो कर  ही दिया बत्ती जलाती थी। हर बृहस्पतिवार  को सन्धा वेला में लक्ष्मी माता की  पूजा होती  थी । उस दिन नैवद्य का प्रसाद चढ़ता था। माँ से ही  हमें धार्मिक  संस्कार  मिला जिसके फल  स्वरूप ईश्वर में आस्ता प्रगाड़ हुआ। धार्मिक  पुस्तकें पढ़ने की रूचि उत्पन्न हुई। स्कूल के दिनों में तो पाठ्य पुस्तकों  के अलवा कुछ पढ़ने का समय नहीं मिलता था। परन्तु गर्मी की  छुट्टी दो महीने की  होती  थी । इसमें दूसरी किताबे पढ़ने का समय मिल जाता था। इस समय को मैंने रामायण, महाभारत, पद्म पुराण , ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि पढ़ने में सदोपयोग किया।   इन  पुस्तकों के अध्ययन से एवं पंडितों के साथ आलोचना से मुझे यही समझ आया कि जिसके मन में भगवान के प्रति श्रद्धा है ,भक्ति है वही भक्त है। भक्त भजन,  कीर्तन ,पत्र-पुष्पांजलि द्वारा अपनी भावना भगवान तक पहुँचा   सकते हैं।
                             आजकल पूजा में विशेष कर सार्वजनिक पंडालो में इन चीजों का पूर्ण अभाव है। भक्ति किसी  में दिखाई नहीं देती और भजन कीर्तन के स्थान  पर गला   फाडू फ़िल्मी गाने बजते रहते  हैं और युवक युवती पश्चिमी स्टाइल में थिरकते रहते हैं। तो क्या यह पूजा वास्तव में भगवान को खुश करने के लिए होता है या खुद  की मौज मस्ती के लिए ?
                            आजकल पूजा का आँकलन भक्ति से नहीं , वरन पंडाल की साज-सजावट , चंदा में वसूले गये मोटी रक़म ,गुप्त दान में मिले भारी भरकम कैश एवं वस्तुएं  और विज्ञापन से आँकलन होता है। इसमें किसका फ़ायदा होता है ? भक्त और भगवान का  या फ़िर केवल आयोजकों का?
                           हर त्यौहार जो सार्वजनिक रूप से मनाया जाता है , उसमे एक मोटी  रक़म चंदे के रूप में  जबरन वसूल किया जाता है। इससे लोगो में भक्ति नहीं, वितृष्णा उत्पन्न होने लगी है।
पूजा के लिए चंदा देने में कोई मना नहीं करता है। परन्तु उसका एक तर्क संगत राशि होना चाहिये , पूजा स्थल की सजावट सुरुचि पूर्ण एवं पूजास्थल के अनुरूप होना चाहिए न की किसी फिल्म के प्रीमियम शो। इस आडम्बर से वास्तविक भक्त के मन में भगवान के प्रति एक संदेहात्मक दृष्टी उत्पन्न होने लगी  हैं ---क्या ईश्वर  सचमुच है ? और यदि हैं तो क्या वह ये विसंगतियां स्वीकार करते है ?
                           हाल ही में  मैं एक मित्र से मिला। बातों- बातों में  उसने पूछ लिया  कि हमने अपने कालोनी में गणेश पूजा के लिए कितना  चंदा दिया , मैंने पूछा क्यों ? उसने कहा, "हमारे कालोनी में पर फ्लैट 2500/-रूपये चंदा मांग रहे हैं। (2000/-रुपये मंदिर एवं पंडाल +500/- पूजा सामग्री ) . मैं जब प्रति माह का मेन्टेनेंस देने गया तो ऑफिस में चार पाँच लोग बैठे थे। मेन्टेनेंस लेने के बाद ढाई हजार रुपये और माँगे .  मैंने पूछा - किसलिए ? उनमें से एक ने कहा गणपति पूजा का चंदा है। मैने जब कहा कि  यह ज्यादा है, सब मेरे साथ बहस करने लगे। तब तक कुछ और लोग वहाँ आ गये   थे। उनसे पिंड छुड़ाने के लिए मैंने कह दिया कि मैं नास्तिक हूँ। मैं पूजा पाठ  नहीं करता ,मैं तो 500/- चन्दा अपनी  इच्छा से दे रहा था ताकि आपकी आस्ता  को ठेस न पहुँचे । कुछ और लोग भी आ गए थे। बात बिगड़ न जाए यह सोच कर  उन्होंने  कहा  यदि  आप  नास्तिक  है   तो  मत  दीजिए  ,आप  जाइए। मैं चला आया।"
                     मैंने मित्र से पूछा कि कालोनी में कुल कितने फ्लैट है ? "करीब 500", उनका उत्तर  था।
मैंने हिसाब लगाया - करीब  साडे बारह लाख रूपये जमा होता है। कमर तोड़ती मँहगाई में हर घर से पूजा के नाम से ढाई हजार रूपये वसूलना और उसे आडम्बर से खर्च करना  क्या  न्याय संगत  है ? हमेशा पूजा पाठ  में लीन एक धर्म भीरू आदमी को शोषण से मुक्ति पाने के लिये उसे जीवन का  सबसे बड़ा झूट बोलना पड़ा कि वह भगवान में विश्वास  नहीं करता , वह नास्तिक है। इससे बड़ी  मानसिक पीड़ा और क्या हो सकती  है ? वह अकेला नहीं है। ऐसे अनेक होंगे जो इन बाहुबलियों  से  डर कर , अपने बच्चों के पेट काटकर चंदा देते होंगे। पूजा मानसिक शांति प्राप्त करने के लिये किया जाता है। क्या इस पूजा से मानसिक शांति मिलेगी ?

                      सार्वजनिक पूजा में एक मोटी रक़म  दान में मिलता है। उस रक़म का उपयोग कैसे और कहाँ होता है ,इसका लेखा जोखा सरकार के पास होता है या नहीं, यह तो सरकार ही जाने। पर यह जनता का पैसा है, जो ईश्वर  को समर्पित है, इसलिए इसका उपयोग जनता के हित में होना चाहिए। हिन्दुस्तान के बहूत से गाँव ऐसे हैं जिनमें  न तो पीने कि पानी की सुविधा है, न रास्ता है , न बिजली है और न शौचालय है। क्या मंदिर ट्रस्ट , पंडाल समिति उनके बैंक में शिथिल पड़ी पैसे का  सदोपयोग इन समाज कल्याण कार्य में लगा नहीं सकता ? कहते हैं जनता ही जनार्धन हैं,  अर्थात जनता ही ईश्वर है। तो क्या जनता की सेवा नहीं करना चाहिए ? राजा  हो या रंक, जो भी इस धरती पर कमाए  हैं  ,यहीं धरती पर छोड़ गए हैं। लेकिन जिसने  जनता जनार्धन का काम किया और जनता का कल्याण किया , वह अपने कर्म से अमर हो गया।
                      पूजा चाहे कोई भी हो , गणेश पूजा , दुर्गा पूजा या फ़िर कोई और पूजा। हर पूजा सादगी से होना चाहिए जिसमें श्रद्धा हो . प्रेम हो  ,भक्ति हो और समर्पण का एहसास हो। आडम्बर या फिजूल खर्चे की नहीं।


कालिपद "प्रसाद "


                       

                 

6 comments:

  1. अब सब दिखावा हो चला है...और पैसा कमाने का जरिया

    ReplyDelete
  2. पैसे के लिए आडंबर आवश्यक हो जाता है. भक्ति का अपना महत्व है.

    ReplyDelete
  3. भगवान के नाम पर लोग खुद ऐश करते हैं ... इस तरह की पूजा आडंबर के अलावा कुछ नहीं ....

    ReplyDelete
  4. पूजा का असल मकसद भूल गए हाँ आज ...
    सेवा का कोई स्थान नहीं रह गया है ... जबकि ईश्वर यही सिखाता है ...

    ReplyDelete
  5. अच्छा किया कि आपने यह चन्दा नहीं दिया और गलत परम्परा से अपने आपको बचा लिया ! बधाई !

    ReplyDelete
  6. रश्मि प्रभाजी, भारतभूषण जी , संगीता स्वरुप जी , दिगंबर नासवा जी एवं सतीश सक्सेनाजी इस पोस्ट को पड़ने और अपनी राय देने के लिए आप सबको धन्यवाद ,आभार.

    ReplyDelete