31.12.12

कानून का प्रावधान क्या हो ?

                                     


                                          दामिनी चली गई परन्तु देश के माथे पर और कांग्रेस के माथे पर कलंक लगाकर गई।दामिनी ना  पहली है ना आखरी होगी क्योकि जब पूरा देश आक्रोश में उबल रहा है , फिर भी महिलाये बलात्कार के शिकार हो रही है, क्योकि सब जानते है की सरकार कुछ दिन घडियाली आंसू बहाएगी ,कुछ वादे  करेगी  और फिर भूल जाएगी। संसद में लम्बी लम्बी बहस होगी  और फिर प्रस्ताव पास नहीं होगा। सरकार  जनतंत्र के नाम से अपना पलड़ा झाड लेगी। बि .जे .पी ने मांग किया है कि तुरंत  सत्र बुलाये जाय और शक्त कानून बनाये जाय। सरकार  क्यों नहीं बुलाती है? यह एक संवेदनशील विषय है, इस पर कानून पास करना सरकार आवश्यक नहीं समझती? यदि सरकार बहस से डरती है तो अध्यादेश जारी करे।समाचार पत्रों से, न्यूज़ चैनलों से यह बात तो जग जाहिर हुआ है कि  सरकार रेपिस्ट को नपुंशक बनाने की बात सोच रही है ,यदि वह दो बार बलात्कार करे। अर्थात बलात्कारियों से सरकार कहना चाहती है कि बेटा एकबार बलात्कार करते हो तो तुम्हे डरने की बात नहीं ,तुम्हे उसके लिए दूसरा मौका भी दिया जायेगा। क्या यह  हास्यादपद नहीं है? सब नागरिक चाहते है कि बलात्कारियों को मृत्युदंड मिले।इसलिए सरकार को ड्राफ्ट में परिवर्तन कुछ इस प्रकार करना चाहिए।
1."बलात्कार " "Rarest of rare" केटेगरी में रखा  जाय। कोर्ट केवल इसी वर्ग को मौत  की सजा दे सकती है अन्य को नहीं।
2. किसी वजह से यदि उसे आजीवन कारावास की सजा मिलती है , आजीवन का अर्थ 35 वर्ष होना चाहिए। नपुंसक बनाकर  जेल में ही रखना  चाहिए, बाहर रहेगा तो प्रतिशोध में  वह शारीरिक क्षति पहुंचाएगा।
3.छेड़खानी करने वालों को कम से कम 7/8 साल की सजा होनी चाहिए।
4.ऐसे केस के लिए फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट  होना चाहिए  जो 2/3 महीने में फैसला सुना दे। इनकी सुनवाई प्रति  दिन होनी चाहिए।
5.पोलिश को केस फाइल करने लिए एक सप्ताह का समय मिलना चाहिए ,बिना वजह देर करने वाले पर कार्यवाही होना चाहिए।
6.बलात्कार के दोषी की सजा माफ़ करने की राष्ट्रपति का अधिकार स्थगित होना चाहिए, क्योंकि इसका लाभ केवल दबंग लोगो को मिलता है ,आम आदमी को नहीं।

        ये कुछ सुझाव है ,जो सरकार अपने संसोधन बिल में , वर्मा आयोग के सिफारिशों के साथ सामिल करके तुरंत  अध्यादेश जारी कर सकती है और जन आक्रोश का सामना कर सकती है। हम ना सरकार के विरोधी है ना हिंसा के पक्षधर । हम यही चाहते है कि महिलायों की सुरक्षा के लिए जितना शक्त से शक्त  कानून बनाया जा सकता है ,बनाया जाना चाहिए। माँ ,बहन, बेटी सुरक्षित  होगी तो हम भी सुरक्षित महसूस करेंगे।

कालीपद "प्रसाद "

29.12.12

निर्भय (दामिनी ) को श्रद्धांजलि

           




                 भारत के लिए आज का दिन शर्मनाक दिन है . भारत सरकार और दिल्ली सरकार की निष्क्रियता से आज भारत की एक बेटी दरिंदो का शिकार होकर इस दुनिया को अलविदा कह दिया।13 दिन वह मौत से लडती रही,परन्तु अंत में वह हार गई।इस घटना से शायद भारत सरकार में बैठे हुए लोगों को शर्म ना आये परन्तु आम आदमी का सर शर्म से झुक गया है।आम आदमी दुखी है,हताश है,उनमे आक्रोश है। कांग्रेस ने तो "भूल जाओ और माफ़ करो" वाली  नीति अपना लिया है। उनके अलग  अलग नेता  अलग भाषा बोलते है। वे क्या सोच समझ कर बोलते है या बोलने के बाद समझते है?  राष्ट्रपति का बेटा अभिजित मुखर्जी ,जो अब सांसद हैं, प्रदर्शन करती महिलायों के लिए अनैतिक ,अवांछित टिप्पणी करता है फिर माफ़ी मांगता है। दिल्ली  के मुख्य मन्त्री जी शोक संवेदना में 'निर्भय' के साथ साथ उसके परिवार को भी श्रद्धांजलि दे दिया। वह क्या कहना चाहती है,स्पष्ट नहीं है। अब समझकर शायद कुछ स्पष्टीकरण दे दें।
              बाल ,वृद्ध ,युवक ,युवती , मालिक मजदुर, नेता ,अभितेता  सभी की ओर से  यह मांग हो रही है कि बलात्कारी को फांसी की सजा होनी  चाहिए। सरकार  उसके लिए शक्त कानून बनाये। कांग्रेस सरकार वायदा  करने में बहुत माहिर है,काम करने में नहीं। अभी तक शांति पूर्ण विरोध प्रदर्शन को दबाने की प्रयत्न
करने के सिवाय कानून बनाने की कोई पहल नहीं की। सरकार  की मंसा शक्त बनाने की नहीं है।सरकार के नुमाइन्दे  हमेशा की तरह इस परिस्थिति से मुक्ति पाने के लिए बहाना ढूंढ़ रहे  है। कभी जाँच आयोग बैठाने की बात करते  है,कभी विपक्ष की आलोचना करते   है,  कभी यह एक छोटी घटना बता कर मीडिया पर बढ़ा चढ़ा कर बताने की दोष मढ़ देते  है। शक्त कानून बनाने की बात करते है, बनाते नहीं। दुःख प्रगट करते है ,फिर सतरंज की चल चलते है। क्या हमारी जनता अभी भी सोती रहेगी और यह प्रपंच को सहेती  रहेगी?
                  अभी समय आ गया है जागने की। युवा वर्ग में अभी जोश है ,होश भी है। वे   इस शांति पूर्ण प्रदर्शन को निर्णायक मोड़ तक ले जा सकते हैं। परन्तु डर  है ,जैसे अन्ना हजारे जी के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन में सरकार के कुछ मंत्रियों ने फूट डाल  कर उसे कमजोर बना दिया है वैसे ही सरकारी  नुमाइन्दे इस आनोलन के बीच में घुस कर हिंसा फैला सकते हैं। तब सरकार यह कहकर कि  आन्दोलन हिंसा फैला रहा है ,आन्दोलन कारियों पर कोई भी जुल्म कर सकती  है। अत: युवा नेतायों को सतर्क रहना पड़ेगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि आंदोलन में हिंसा न हो और न आन्दोलन कमजोर पड़े। यह तब तक चलना चाहिए जबतक सरकार कानून को संसद के दोनों सदनों से पास न करा ले। सरकार  इस परिस्थिति से  तात्कालिक मुक्ति  पाने के लिए एक जांच आयोग बैठाया है। कानून में किस प्रकार  का बदलाव लाया जाय . इस आयोग का अध्यक्ष हैं माननीय जस्टिस वर्मा। जनता से आग्रह किया गया है कि अपनी राय इस आयोग को भेजे। एक नागरिक होने के नाते हम भी यही चाहेंगे कि अपनी राय भेजे।उनका ईमेल है:-

                                       justice.verma@nic.in

             सभी युवा वर्ग एवं इस लेख को पढने वाले सभी जागरूक पाठकों से भी निवेदन है कि वे भी अपनी राय भेजे। यह आग्रह करे कि :-
1."बलात्कार  "को " rarest of rare" केटेगरी में रखा जाय क्योंकि मृत्युदंड केवल इन्ही को मिलता है।
2 .बलात्कारी  को कमसे कम 20 साल की सजा होनी चाहिए .8/10 साल नहीं।
3. सजा के समाप्त होने तक कोई जमानत नहीं होनी चाहिए।
4. बलात्कारी की सजा माफ़ करने /कम करने की राष्ट्रपति के अधिकार  क्षेत्र से बाहर होना चाहिए क्योंकि इसका उपयोग केवल पहुच वाले राजनीतिज्ञ  ही करते है। आम आदमी नहीं।

                  यह भी लिखें कि जो कानून बनाये  उसका नाम "निर्भय क़ानून "हो, ताकि भारत की बेटियों के दिल में हमेशा वह जिन्दा रहे और भारत की बेटियां निर्भय होकर घूम फिर सके। यही होगी  "निर्भय" को सच्ची श्रद्धांजलि


कालीपद "प्रसाद "

            




23.12.12

"सास भी कभी बहू थी"

         
                                                                         


              एकता कपूर की धारावाहिक "सास भी कभी बहू  थी" शायद इस उद्देश्य से बनाया गया था कि मनोरंजन के साथ साथ  लोग जान सके कि बहू को किन किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है और बहू जब सास बने तब वह बहू को उस प्रकार से प्रताड़ित न करे वरन उसे एक बेटी समझ कर हर मुसीबत में उसका सहारा बने। धारावाहिक तो बहुत लोकप्रिय हुआ और उसकी उसकी बहू तुलसी (स्मृति ईरानी ) आज सांसद बन गयी परन्तु भारत की सास और बहू ,वहीँ के वहीँ हैं।दोनों के रिस्ते जैसे थे वैसे ही है -चूहे बिल्ली के रिश्ते जैसे।
                मुझे पता नहीं यह किसने कहा है कि " औरत ही औरत का दुश्मन है"।जिसने भी कहा हो ,वह निश्चय ही सास -बहू के रिश्ते जैसे रिश्तों को देख कर ही कहा होगा। आइए जरा देखते हैं कि बहू को सास बनने तक किन किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है।
               लड़की जब मायके में रहती है तो उसे देखने होनेवाली सास ,ससुर ,ननद,पति ,जेठ,जेठानी सभी आयेंगे ।  सभी एक साथ या फिर बारी बारी और अपनी अपनी दृष्टी कोण से उसे नापेंगे। किसी को वह साँवली लगती है तो किसी को गोरी ,किसी को लम्बी लगती है तो किसी को ठिगनी।किसी को उसकी  बात अच्छी नहीं लगती और किसी को उसकी चलना।ननद को तो वह नकचड़ी लगती है। लड़की को इस परिस्थिति का सामना कई बार करना पड़ता है क्योंकि  एक बार में तो शादी तय नहीं होती। इस प्रकार लड़की को गुडिया जैसे सजा संवर कर कई बार अलग अलग लोगों के सामने पेश किया जाता है जैसे कोई वस्तु बाजार में बेचने के लिए रख दिया जाता है। किसी खरीददार की मर्जी हुई, खरीद लिया नहीं तो पड़ा रहा।लड़की की हालत भी वैसी होती है। बार बार अस्वीकृत किये जाने से उसका आत्मबल गिरता है।उसके आत्म सम्मान में ठेस पहुँचती   है। आज लड़कियां पढ़ लिख कर शिक्षित हो गई हैं फिर  भी लड़कियों की परिस्थिति में परिवर्तन नहीं हुआ है।पढीलिखी बहू जब सास बनती है ,वह भी वही  पुरानी रीति रिवाज को अपनाती है। क्या कोई नई  तरीका सोच नहीं सकती, जिससे लड़की को कोई मानसिक आघात न लगे?
               दूसरी समस्या है दहेज की। यदि लड़की होनेवाली सास को पसंद आ गई तो बड़ी आराम से  कहेगी -हमारे बेटे के लिए तो बहुत से रिश्ते आ रहे हैं और वे लोग कार  ,फ्रिज ,टी .वी ,इत्यादि देने के लिए तैयार हैं लेकिन हमने तो मन कर दिया। हमको तो एक अच्छी बहू  नहीं एक अच्छी बेटी चाहिए।हमें हमारी बेटी मिल गई आपके घर में। हमारे  घर में वह बेटी बनके रहेगी। लेकिन क्या है न बहन जी(भाई साहब) लोग तो उसे हमारी बहू ही समझेंगे न ? हम समाज में रहते है तो समाज के आचार विचार,रीतिरिवाज को मानना ही पड़ता है न? आप भी सम्मान की रक्षा के लिए उसे खाली  हाथ  नहीं भेजेंगे। लोग कहेंगे किस कंगाल की बेटी को उठा लाये हो? इससे बहु का असम्मान होगा न ? इसलिए आप अपनी, हमारी और बेटी  का सम्मान का ख्याल रखियेगा। हमारे पास तो सबकुछ है ,हमें कुछ नहीं चाहिए। जो भी देना है अपनी बेटी को दीजिये ,वे सब उसके ही काम  आयेंगे।
                   बस हो गई मुसीबत बेचारे  माँ बाप की। शायद यही स्थिति आज की सास के सामने आई होगी जब उसकी शादी की बात हुई होगी।उसके माँ बाप को भी ऐसी ही परिस्थिति का सामन करना पड़ा होगा। परन्तु सास ने उससे कोई सीख ली ? नहीं, वह भी आज वही  कर रही जो उसके सास ने उसके माँ बाप से किया था।शायद अब वह अपनी बहू से बदला ले रही है।
                   शादी हो गई। बहू  घर आ गई।  अब शुरू हुआ दूसरा रिवाज , मुहँ दिखाई।मुहं दिखाई में औरतों को दुल्हन को कम दुल्हन के साथ आई चीजों को देखने में ज्यादा रूचि होती है।कहीं कहीं तो सब वस्तुयों को एक कमरे में सजा  कर रख दिया जाता है और हरेक औरत को  चीजो की गुणवत्ता और कीमत विस्तार से बताई जाती है।कीमत जितनी ऊँची होगी,सास की नाक  भी उतनी ऊँची हो जाती है। चीजे चाहे कितनी अच्छी हो सास उसमे खामियां निकालना  नहीं   भूलती जिससे बहू के माँ बाप को नीचा  दिखा सके। सचमुच में यदि किसी वस्तु में खामी नजर आई तो बहू का खैर नहीं।यहीं से शुरू हो जाती  है बहू  की पीड़ा। वैसे मुहँ दिखाई दी रस्म आज एक बेतुकी रस्म है। पुराने ज़माने में दुल्हन का चेहरा घूँघट में ढका रहता था इसलिए उसे अलग से देखने के लिए औरते आती थी। लेकिन आजकल तो दुल्हन का हँसता हुआ खीला खीला चेहरा  तो पुरे बाराती और घराती को  पहले ही दिखाई देता है। फिर यह मुहं दिखाई की नौटंकी क्यों? क्या सास मुहं दिखाई और  चीजो की  नुमाईस बंद नहीं कर सकती ?
                    विवाह के बाद बहू और बेटे में घनिष्टता होना  स्वाभाविक है।वे एक दूसरे  को अधिक से अधिक समय देना चाहते हैं। इस कारण  माँ को पहले जैसा ज्यादा समय नहीं दे पाता ,इससे कुछ माँ को लगता है कि बेटा  हाथ से निकल गया। इसमें घी डालने का काम तथाकथित हितैसी पड़ोसिन  या सास की कोई दोस्त करती है। वह कहेगी -अरे ! विमला सुना तुमने ? सरला का बेटा  था न ? वह शादी के बाद अब माँ की नहीं सुनता ,अपनी बीवी की बातों  में ही नाचता रहता है। तुम अपने बेटे पर अपना कंट्रोल रखना अन्यथा बेटा  हाथ से निकल जायेगा। बस अब क्या ? सास लग जाती है बहू और बेटे में फ़ुट दालने  के काम में। पुनरावृत्ति  होती है पुराणी कहानी की, क्यों कि सास  भूल चुकी होती है अपनी जवानी की परेशानी। सास की इस साजिस में कभी कभी उनकी बेटी अर्थात बहू की ननद भी योगदान दे देती है।अब जटिला  और कुटिला की जोड़ी मिलकर बहू को तंग कर एक ज़िंदा  लाश बना देती है और कभी कभी तो जलाकर सचमुच का लाश बना देती है। सास यह भूल जाती है कि उसकी भी बेटी किसी के घर  की बहू बनेगी।
                 यदि बहू ने इन  कठिनाइयों को   पार कर लिया तो अगला पढ़ाव  होता है संतान। यदि बहू ने लड़का पैदा किया तो वह गृहलक्ष्मी है।आदर सत्कार का पात्र है। परन्तु यदि लड़की हुई तो वह कुलक्षनी है।वह अपशकुन है।वंश चलने लायक नहीं है। न जाने कौन कौन से उपाधियों से नवाज़ा जाता है। लड़की पैदा होते ही उसके  दुर्दशा के दिन शुरू हो जाता है। सास  यह भूल जाती है की वह भी एक लड़की के रूप में जनम लिया  था और अब वह एक वंश चला रही है।  वास्तव में नारी हो  या पुरुष, अकेला कोई वंश चला नहीं सकता। नारी पुरुष मिलकर ही वंश  चलाते  हैं। जहाँ तक पुत्र की बात है ,विज्ञानं ने साबित कर दिया है कि पुत्र या पुत्री होने में बहू जिम्मेदार नहीं है वरन बेटा ही जिम्मेदार है।आज के पढीलिखी सास को इस बात को समझना चाहिए और बहूयों को दोषमुक्त कर देना चाहिए।उनको सताने के बदले लड़के की इलाज करना चाहिए। वैज्ञानिक तत्त्व पर आधारित इस सत्य को भी न मान कर यदि  सास लड़की पैदा करने के लिए बहू को दोषी मान कर ,उसे परेशान  करती है तो फिर यही मानना पड़ेगा कि "औरत ही औरत का दुश्मन है"।
                जिस दिन हर  सास यह प्रण  कर ले कि वह अपने बेटे की शादी में न दहेज़ लेगी न बेटी के शादी में दहेज़ देगी, उस दिन भारत में भ्रूण हत्या ,दहेज़ हत्या ,लड़के लड़कियों में विषमता जैसे कुरीतियाँ समाज से छूमंतर हो जाएगी। जिस दिन सास माँ बनकर ,बहू यदि कोई गलती करे  तो उसे समझा बुझा कर बेटी बना लेगी उस दिन लड़की  के लिए मायका और ससुराल का अंतर  समाप्त हो  जायेगा। जरुरत इस बात की है कि समाज  में मौलिक सामाजिक परिवर्तन लाने  के लिए हर सास हिम्मत से इन बुराईयों के विरुद्ध आवाज उठायें ,महिलाओं को संगठित करें और अपने जीवन में इन आदर्शों का पालन करें।तभी यह कहावत झूठी साबित होगी कि "औरत ही औरत का दुश्मन है"।



कालीपद "प्रसाद "
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19.12.12

क्या दामिनी को न्याय मिलेगा ?






                  भारत आजाद देश है। असंख्य स्वतन्त्र सेनानियों ने अपना जीवन न्याछावर इसलिए किया था कि भारत का हर नागरिक सर उठाकर जी सके , आजादी से निर्भय हो कर घूम फिर सके। आज भारत का सर शर्म से झुक गया है । बहु बेटियां सुरक्षित नहीं है। निर्भय हो कर महिलाएँ कहीं आ जा नहीं सकती  । कहीं रेप ,कहीं छिना झपटी ,कहीं चोरी ,डकैती ,कहीं गुंडागर्दी ,जहाँ देखो वहीँ भय ,दहशत का वातावरण। क्या इसी पर हम गर्व करते हैं? कहते है "भारत महान?"
            सीधा साधा जनता को गाय बकरियों की तरह हाँका  जा रहा है। जिस नेता को , अपने रक्षक समझ कर  चुन कर भेज था वह अब भक्षक बन गया है।वे केवल अपने फ़ायदे  की बात सोचते है। अपनी रक्षा के लिए उन्हें जेड सुरक्षा चाहिए परन्तु जनता की सुरक्षा के लिए पर्याप्त मात्रा में पुलिस भी नहीं है । जनता के भलाई के लिए कोई बिल संसद पेश होता है तो उसमे हजारों अड़ंगे डाल दिया जाता है। सत्ता पक्ष और विपक्ष मिलकर ये ड्रामा करते हैं और जनता को वेवकुफ़ बनाते है। लेकिन जब उनकी वेतन और भत्ते  की बिल  आती है तो बिना किसी विरोध के एक ही दिन में पास हो जाता है। क्या ये लोग कभी सच्चे मन से जनता की भलाई की बात सोचते है? शायद नहीं। संसद में और संसद के बाहर  एक पार्टी अपने को भारतीय संकृति का रक्षक कहता है,दूसरा पार्टी सेकुलरिज्म का राग अलापता ,तो तीसरा पार्टी समाजवाद का नारा  लगता फिरता है। वैसे ही जो और पार्टियाँ है अपनी अपनी ढपली बजाते रहते है। लेकिन क्या  रेप , छिना झपटी , चोरी ,डकैती , गुंडागर्दी इन पार्टियों का कॉमन एजेंडा  है? यदि नहीं तो जैसे अपने वेतन,भत्ते के बिल पास  करते वक्त विरोध भुलाकर एक हो जाते है वैसा इन असमाजिक तत्तो को आजीवन कारावास या मृत्युदंड देने का कानून सर्व सम्मति से क्यों नहीं पास करते?कहीं ऐसा तो नहीं कि ये गुण्डे बदमास इन्ही के पालतू जीव हैं।कानून बनने पर  इक्का दुक्का आवाज उठाने  की आवश्यकता ही नहीं होगी।कानून पास होने पर अदालत आगे का काम   करेगी।
             श्री अन्ना हजारे और उनके साथियों द्वारा बनाया गया जन लोकपाल बिल का मसौदा पूरा हिन्दुस्थान ने देखा । यह बिल सच्चे अर्थ में आम जनता की भलाई के लिए बनाई गई थी और भ्रस्टाचारी नेता और भ्रस्टाचारी कर्मचारी के  खिलाफ थी ,इसलिए सभी नेता मिलकर इसे स्वीकार नहीं किया। यदि सभी विपक्षी पार्टी एक मतसे उसे स्व्वीकर कर लेते  ओ सत्ता पक्ष  को भी स्वीकार करना पड़ता। अभी  जो सरकारी लोकपाल है ,यह भ्रस्टाचारी को पकड़ने के लिए नहीं वरन उसे बचाने  केलिए है। इसमें जलेबी जैसे पेंच है और भ्रस्टाचारी उसी पेंच में सुरक्षित रहेगा ,उसे कभी  दंड मिलेगा ही नहीं। आम जनता सरकार की चालाकी समझ चुकी है।
        दिल्ली में  दामिनी रेप केस को लेकरआज पूरा देश हिला  हुआ है। लड़कियों में  उग्र आक्रोश है।महिलाये ,विद्यार्थी ,आम जनता जगह जुलुस निकल रहे है, नारे लगा रहे हैं। रेपिस्ट  को मृत्युदंड की मांग कर रहे है। क्या अब भी हमारे सांसद सोये रहंगे या एकमत हो कर शक्त कानून बनाकर अपराधी को दंड देने में मदत करेंगे?  या फिर जैसे हर रेप में  ज़ोरशोरसे  संसद में आवाज उठती है ,शांत हो जाती है और  एक   रेप फिर होता है। क्या वही जरी रहेगा और इन्तेजार करेंगे एक और रेप की ? ऐसा लगता है कि  सांसद अपनी ड्यूटी केवल संसद  में आवाज उठाने तक सिमित कर लिया है। विपक्ष के नेता ने रेपिस्ट को मृत्युदंड की मांग की। लेकिन जब संसद में कानून नहीं बनायेंगे तो जज अपने मन से मृत्युदंड तो नहीं दे सकता। इसलिए कानून ऐसा बनाए कि जज के पास मृत्युदंड देने के सिवा आप्शन न रहे।  ऐसे सजा प्राप्त अपराधी की सजा माफ़ करने का अधिकार राष्ट्रपति को भी नहीं होना चाहिए अन्यथा पहुँच वाले लोग छुट जायेंगे। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ,अंतिम मान्य निर्णय होना चाहिए।

                             

कालीपद "प्रसाद"
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14.12.12

संस्कृति का संक्रमण



                 आज भारतीय संस्कृति संक्रामक  मोड़ पर है।जहाँ नजर डालो वहीँ परिवर्तन दिखाई देता है। कुछ में परिवर्तन हो चूका है और कुछ परिवर्तन के मार्ग में अग्रसर हैं।लोगो के सुबह सोकर उठने से लेकर रात को सो जाने तक जीवन में उपयोग होनेवाले हर चीज ,हर परिस्थिति में परिवर्तन हो रहा है।परिवर्तन होना भी चाहिए क्यकि परिवर्तन ही प्रगति का लक्षण है।भारत में यह परिवर्तन सही दिशा में हो रहा है ,ऐसा कहना अभी अपरिपक्क होगा। लोगों के खान -पान बदल रहे हैं, वेश-भूषा बदल रहे हैं, रहन -सहन बदल रहे हैं, रिश्तों के परिभाषाएँ बदल रही  हैं , व्यव्हार बदल रहे हैं , भाषा में, शब्दों के अर्थों में परिवर्तन हो रहे हैं, शालीन और अश्लील भाषा में अंतर कम हो रहा है।कुछ साल पहले तक किसी लडकी की सुन्दरता की प्रशंसा में कहा जाता था -"खुबसूरत सुशील लड़की है ". यही बात आज यदि किसी टी .वी .आर्टिस्ट या बॉलीवुड के किसी आर्टिस्ट के लिए, या मुंबई  में विदेशी संकृति में लिपटी किसी युवती को  कहा जाय  तो उसे लगेगा की किसी भैया ने उसे गाली दिया है। लेकिन उसके बदले  में उसे यह कहे -"क्या नमकीन ,सेक्सी है " तो उसकी बत्तीसी खिल जाती है।टी .वी के यथार्थ प्रदर्शन (रियलिटी शो ) में तो ऐसे टिपण्णी का भरमार है। इसे प्रस् तुत करने वाले आयोजक,कलाकार ,दर्शक एवं श्रोतागण सभी आनंद ले रहे  हैं।किसी के तरफ से कोई विरोध  नहीं हुआ है और उम्मीद है नहीं ही होगा।अत:यह मान लेना अतिशयोक्ति नहीं होगी  कि  भारतीय समाज अब परिवर्तन  चाहता है।वह भी पश्चिमी शैली में।भारत की पुरानी, दमघोटू , निरर्थक रस्म-रिवाज से लगता है लोग ऊब चुके हैं।भारत में पहले लड़कियां साड़ी या सलवार कुर्ते पहनती थीं। लड़के हाफ पैन्ट या फुल पैन्ट पहनते थे।परन्तु आज लड़के तो फुल पैन्ट में हैं लेकिन लडकियाँ क्वार्टर पैन्ट (हाफ पैन्ट कहना उचित नहीं होगा )में सार्वजनिक मंच पर नजर आती हैं।भारत की लड़कियां आधुनिकता के दौड़ में लडको को पीछे छोड़ दिया।कई  टी .वी .चैनल में एंकरिंग  (सूत्रधार) का कम करती हुई लड़कियां इसी वस्त्र में नजर आती हैं। संस्कृति के तथा कथित रक्षक उसे देखकर आँख मुंद लेते हैं।लेना भी चाहिए ,भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र है। यहाँ बोलने ,खाने-पीने , पहनने ,सभी में आजादी है।मैं तो कहूँगा कि कुछ खाने से या कुछ पहन् लेने से संस्कृति में विकृतियाँ नहीं आती, .विकृतियाँ तो मन में हैं।
            आजाद देश में सब में आजादी होने के वावजूद समाज के ये ठेकेदार  कुछ सामाजिक मामले में अपनी पकड़ कमजोर नहीं करना चाहते। उदहारण के लिए "विवाह ", इसमें कई विकृतियाँ हैं परन्तु उसे दुर करने में देश के कानून भी अक्षम है, क्योंकि कानून को लागू करने वाले भी विकृतियों का रक्षक हैं।ठेकेदारों का कथन है कि वर वधु का गोत्र एक नहीं होना चाहिए ,दूसरा दोनों की जाति एक होना चाहिए। यद्यपि उदारवादी अंतर्जातीय विवाह स्वीकार कर चुके हैं। कुछ वर्षों में अन्तर्जातीय विवाह का दर बढ़ा है फिर भी यह बहुत कम है।अन्तर्जातीय विवाह जब बड़ी तादात में होने लगेगी तब "   दहेज़ प्रथा ,जातीय भेद- भाव  ," आसानी से मिट जायेगा। जाति  के नाम पर चलने वाली राजनीति  के दुकाने भी बंद हो जाएँगी।
            विवाह -परिणय -पाणिग्रहण अर्थात वरऔर वधु जिन्दगी भर एक दुसरे को सुख दू:ख में साथ रहने की प्रतिज्ञा करते है। इस  शुभ कार्य में वधु और वर के दोनों परिवार मिलकर उन्हें अनुमति देते हैं कि वे पति -पत्नी के रूप में जीवन यापन कर सकते हैं और संतान उत्पन्न कर सकते हैं।परिवारों की अनुमति में समाज की अनुमति भी सामिल होती है।इस आयोजन में वर वधु को वस्तुएँ उपहार (दान) में देते है।पुराने ज़माने में गाय जैसी दूध देने वाले जानवर भी दान में दिया जाता था।इसे 'गोदान 'कहते है।परिवर्तन की आधुनिक युग में बेटी को एक वस्तु  मानकर वर को दान कर उसे 'कन्यादान ' कहना उचित नहीं है। कन्या कोई गाय या वस्तु नहीं है जिसे दान में वर को दिया जाय।आज जहाँ नारी पुरुष समानता का स्वर तेज हो रहा है, नारी पुरुष से कंधे से कंध मिलाकर हर क्षेत्र में आगे बढ रही है, क्या ऐसी परिस्थिति में कन्या को वर को दान में देकर उसे कन्यादान कहना नारी जाति को हेय समझना नहीं है ? यहाँ वर को दान में कन्या को क्यों नहीं दिया जाता ? इसे 'वरदान'  या 'पुत्र दान' भी कहा जा सकता है। इसलिए नहीं की यह पुरुष प्रधान समाज है ? देश ने नारी को प्रधान मंत्री एवं राष्ट्रपति के रूप में स्वीकार कर चुके है .फिर इसमें पीछे क्यों? हर बात में पश्चिमी देशों की नक़ल  कर रहे है ,क्या वहाँ 'कन्यादान " जैसा रस्म या शब्द है ?
        'कन्यादान' कहो 'वरदान' या 'पुत्रदान' , मूल में यह 'अनुमति दान'है।दोनों परिवार एवम समाज वर-वधु को साथ साथ रहने और दाम्पत्य  जीवन  शुरू करने की अनुमति प्रदान करता है।यही विवाह है। अत:इस परिवर्तन की युग में नारी जाति को सम्मान देते हुए इसे "अनुमति दान " कहना उचित होगा  'कन्यादान' नहीं।

कालीपद  "प्रसाद "




6.12.12

Environment, The Bequest






Hey Man!

Your child will claim bequeath

Sujwala Suphala Earth    ( with pure water and fertile land)

Earth ,the heritage of ancestors.

The earth vibrant with flora and fauna

Decorated with, herbs and liana

Vivacious and  jubilant  with

Twitter and chirps of birds,

Hilarious, hilarious Earth.

Earth live tree decorated with ivy,

The oxygen-rich and Holy pure water

Earth pulsing, vibrating with life nectar.




Your child will not ask for

The soil, barren and inferior.,

Exterminator toxic air, unnatural founts

Shrinking forests and devastated environment,

Contaminated water and clinically dead mass

 The Earth, where life. is scarce.


Hey man!

Do  write bequest of your offspring’s

No weapon, no wealth, nor precious elements,

Pass onto them only three things

 Green Earth, Clean Water – Air,

And clean environment !!!


Kalipad "Prasad"
All Right reserved.

9.11.12

राष्ट्रपति का चुनाव



अमेरिका ने सबको जता दिया है ,
राजनीति में वह सबसे आगे है।
काले -गोरे का रंगभेद पुरानी बात है ,
प्रमाण है - एकबार फिर से
काले को सिरमौर बनाया है।
बराक ओबामा ने साबित किया
"काले हैं तो क्या हुआ हम दिलवाले है।"

भारत उस से दूर ........
 बहुत दूर , जात-पात ,धर्म ,कुरीतियों के
फंदों  में फंसकर फडफडा रहा है।

चुनाव जितने के बाद राष्ट्रनेता
राष्ट्र की उन्नति की बात करता है,
राष्ट्र की भाषा (आशा ) बोलता है।
भारत में नेता अपनी जाति  की
अपने समुदाय की उन्नति की बात करता है।


बराक ओबामा ने भाषण में कहा -
"पूरा अमेरिका एक परिवार है ,
अमेरिका को प्रगति के रास्ते ले जाना है,
इसकी आर्थिक प्रगति के रफ़्तार तेज करना है,
नए रोजगार के अवसर तलाश करना है,     
आपको (जनता को )  किया वायदा पूरा करना है,
चुनौतियाँ कठिन हैं ,रास्ता लम्बा है ,
पर आपके सहयोग से ,ये  कार्य पूरा करेंगे ,
यह जीत आपका है, आप धन्यवाद ,बधाई के पात्र है।"

भारत में नेता कुछ ऐसा ही बोलते हैं,
पर वे भारत को एक परिवार नहीं
वरन परिवारों का राष्ट्र समझते है .
वे राष्ट्र के नाम से अपनी जाति,
अपने परिवार की उन्नति चाहते है,
और दूसरी जाति, दुसरे परिवारों का शोषण करते है,
वे अपने को राष्ट्र से ऊपर समझते है।
राष्ट्र भाषा नहीं , राष्ट्र कु-भाषा बोलते है ,
संसद में ,संसदीय भाषा नहीं 
असंसदीय भाषा में बात करते है।
राष्ट्र नेता  राष्ट्रीय आर्थिंक प्रगति  नहीं
अपने परिवार की आर्थिक प्रगति करता है .
घपलों में नए रोजगार तलासते है ,
कोयला से बहुतो ने मुहँ काला कर लिया ,
टेलीफोन के तार से फांसी लगा लिया  ,
पर ये नेता मरते नहीं , रक्तबीज के वंशज है
एक मरते है तो दश पैदा हो जाते है।


कालीपद "पसाद "



















13.9.12

सार्वजनिक पूजा

                 

 आलीशान पंडाल
                                                                                         


                              बचपन में माँ को प्रतिदिन पूजा करते देखा है। घर के  एक कोने में एक छोटा सा मंदिर जिसमें  वह नहा धो कर  ही दिया बत्ती जलाती थी। हर बृहस्पतिवार  को सन्धा वेला में लक्ष्मी माता की  पूजा होती  थी । उस दिन नैवद्य का प्रसाद चढ़ता था। माँ से ही  हमें धार्मिक  संस्कार  मिला जिसके फल  स्वरूप ईश्वर में आस्ता प्रगाड़ हुआ। धार्मिक  पुस्तकें पढ़ने की रूचि उत्पन्न हुई। स्कूल के दिनों में तो पाठ्य पुस्तकों  के अलवा कुछ पढ़ने का समय नहीं मिलता था। परन्तु गर्मी की  छुट्टी दो महीने की  होती  थी । इसमें दूसरी किताबे पढ़ने का समय मिल जाता था। इस समय को मैंने रामायण, महाभारत, पद्म पुराण , ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि पढ़ने में सदोपयोग किया।   इन  पुस्तकों के अध्ययन से एवं पंडितों के साथ आलोचना से मुझे यही समझ आया कि जिसके मन में भगवान के प्रति श्रद्धा है ,भक्ति है वही भक्त है। भक्त भजन,  कीर्तन ,पत्र-पुष्पांजलि द्वारा अपनी भावना भगवान तक पहुँचा   सकते हैं।
                             आजकल पूजा में विशेष कर सार्वजनिक पंडालो में इन चीजों का पूर्ण अभाव है। भक्ति किसी  में दिखाई नहीं देती और भजन कीर्तन के स्थान  पर गला   फाडू फ़िल्मी गाने बजते रहते  हैं और युवक युवती पश्चिमी स्टाइल में थिरकते रहते हैं। तो क्या यह पूजा वास्तव में भगवान को खुश करने के लिए होता है या खुद  की मौज मस्ती के लिए ?
                            आजकल पूजा का आँकलन भक्ति से नहीं , वरन पंडाल की साज-सजावट , चंदा में वसूले गये मोटी रक़म ,गुप्त दान में मिले भारी भरकम कैश एवं वस्तुएं  और विज्ञापन से आँकलन होता है। इसमें किसका फ़ायदा होता है ? भक्त और भगवान का  या फ़िर केवल आयोजकों का?
                           हर त्यौहार जो सार्वजनिक रूप से मनाया जाता है , उसमे एक मोटी  रक़म चंदे के रूप में  जबरन वसूल किया जाता है। इससे लोगो में भक्ति नहीं, वितृष्णा उत्पन्न होने लगी है।
पूजा के लिए चंदा देने में कोई मना नहीं करता है। परन्तु उसका एक तर्क संगत राशि होना चाहिये , पूजा स्थल की सजावट सुरुचि पूर्ण एवं पूजास्थल के अनुरूप होना चाहिए न की किसी फिल्म के प्रीमियम शो। इस आडम्बर से वास्तविक भक्त के मन में भगवान के प्रति एक संदेहात्मक दृष्टी उत्पन्न होने लगी  हैं ---क्या ईश्वर  सचमुच है ? और यदि हैं तो क्या वह ये विसंगतियां स्वीकार करते है ?
                           हाल ही में  मैं एक मित्र से मिला। बातों- बातों में  उसने पूछ लिया  कि हमने अपने कालोनी में गणेश पूजा के लिए कितना  चंदा दिया , मैंने पूछा क्यों ? उसने कहा, "हमारे कालोनी में पर फ्लैट 2500/-रूपये चंदा मांग रहे हैं। (2000/-रुपये मंदिर एवं पंडाल +500/- पूजा सामग्री ) . मैं जब प्रति माह का मेन्टेनेंस देने गया तो ऑफिस में चार पाँच लोग बैठे थे। मेन्टेनेंस लेने के बाद ढाई हजार रुपये और माँगे .  मैंने पूछा - किसलिए ? उनमें से एक ने कहा गणपति पूजा का चंदा है। मैने जब कहा कि  यह ज्यादा है, सब मेरे साथ बहस करने लगे। तब तक कुछ और लोग वहाँ आ गये   थे। उनसे पिंड छुड़ाने के लिए मैंने कह दिया कि मैं नास्तिक हूँ। मैं पूजा पाठ  नहीं करता ,मैं तो 500/- चन्दा अपनी  इच्छा से दे रहा था ताकि आपकी आस्ता  को ठेस न पहुँचे । कुछ और लोग भी आ गए थे। बात बिगड़ न जाए यह सोच कर  उन्होंने  कहा  यदि  आप  नास्तिक  है   तो  मत  दीजिए  ,आप  जाइए। मैं चला आया।"
                     मैंने मित्र से पूछा कि कालोनी में कुल कितने फ्लैट है ? "करीब 500", उनका उत्तर  था।
मैंने हिसाब लगाया - करीब  साडे बारह लाख रूपये जमा होता है। कमर तोड़ती मँहगाई में हर घर से पूजा के नाम से ढाई हजार रूपये वसूलना और उसे आडम्बर से खर्च करना  क्या  न्याय संगत  है ? हमेशा पूजा पाठ  में लीन एक धर्म भीरू आदमी को शोषण से मुक्ति पाने के लिये उसे जीवन का  सबसे बड़ा झूट बोलना पड़ा कि वह भगवान में विश्वास  नहीं करता , वह नास्तिक है। इससे बड़ी  मानसिक पीड़ा और क्या हो सकती  है ? वह अकेला नहीं है। ऐसे अनेक होंगे जो इन बाहुबलियों  से  डर कर , अपने बच्चों के पेट काटकर चंदा देते होंगे। पूजा मानसिक शांति प्राप्त करने के लिये किया जाता है। क्या इस पूजा से मानसिक शांति मिलेगी ?

                      सार्वजनिक पूजा में एक मोटी रक़म  दान में मिलता है। उस रक़म का उपयोग कैसे और कहाँ होता है ,इसका लेखा जोखा सरकार के पास होता है या नहीं, यह तो सरकार ही जाने। पर यह जनता का पैसा है, जो ईश्वर  को समर्पित है, इसलिए इसका उपयोग जनता के हित में होना चाहिए। हिन्दुस्तान के बहूत से गाँव ऐसे हैं जिनमें  न तो पीने कि पानी की सुविधा है, न रास्ता है , न बिजली है और न शौचालय है। क्या मंदिर ट्रस्ट , पंडाल समिति उनके बैंक में शिथिल पड़ी पैसे का  सदोपयोग इन समाज कल्याण कार्य में लगा नहीं सकता ? कहते हैं जनता ही जनार्धन हैं,  अर्थात जनता ही ईश्वर है। तो क्या जनता की सेवा नहीं करना चाहिए ? राजा  हो या रंक, जो भी इस धरती पर कमाए  हैं  ,यहीं धरती पर छोड़ गए हैं। लेकिन जिसने  जनता जनार्धन का काम किया और जनता का कल्याण किया , वह अपने कर्म से अमर हो गया।
                      पूजा चाहे कोई भी हो , गणेश पूजा , दुर्गा पूजा या फ़िर कोई और पूजा। हर पूजा सादगी से होना चाहिए जिसमें श्रद्धा हो . प्रेम हो  ,भक्ति हो और समर्पण का एहसास हो। आडम्बर या फिजूल खर्चे की नहीं।


कालिपद "प्रसाद "


                       

                 

17.8.12

गीता- रहस्य


                                                                      जन्माष्टमी का त्योहार था। चारो तरफ त्योहार का उल्लास था। टी वि पर अलग -अलग शहरों में  मनाए  जा रहे कृष्ण जन्मोत्सव का विस्तृत विवरण दिया जा रहा था। मुंबई में जहाँ दही हांड़ी का धूम था  और फ़िल्मी हस्तियाँ  पंडालों में आकर बड चढ़ कर भाग ले रहे थे  और जनता का  मनोरंजन   कर रहे थे , वहीं मथुरा और  वृन्दावन नई नवेली दुल्हन की तरह सज धज  माखन चोर के आने का इंतजार कर रहे थे। ज्यों ही रात के 12 बजे  शंख ध्वनी के साथ अन्य वाद्य यन्त्र भी जय घोष के साथ गिरिधर कृष्ण मुरारी की धरती  पर  अवतरण  की सुचना दी, भक्तगण  ख़ुशी से झूम उठे। श्री कृष्ण के अनगिनित नामो  मे से अपने अपने पसंदीदा नाम से भगवन को याद करने लगे , उन्हें प्रणाम करने लगे। ऐसा लगता था मानो द्वापर युग लौट आया है। मैं भी अन्य भक्त जनों की भांति हाथ जोड़कर टी वी  को प्रणाम किया जिसमे यह दिखाया जा रहा था। मेरे मन में विचार आया;- क्यों न हम भी कुछ करे , सभी लोग भजन - कीर्तन में रात्रि जागरण कर रहे हैं। अत: मैं  श्री मद्भागवत गीता  लेकर बैठ गया। कई जगह इसका प्रवचन सुन चूका हूँ लेकिन दावे के साथ कह नहीं सकता कि  दो चार श्लोकों के अर्थ के सिवा कुछ समझ पाया हूँ। वैसे विद्वानों के मुह से यह कहते सुना है कि "गीता पढ़ तो कोई भी लेता है परन्तु  इसका गूढ़ अर्थ विरले को ही  समझ आता है।" मैं उन विरले में तो नहीं हूँ, पर सुना था कि रत्नाकर 'मरा -मरा जपते जपते "राम -राम "जपने लगा और वह महा कवि वाल्मीकि बन गया। इसी प्रेरणा से लगा शायद मैं गलत    समझते समझते  कभी सही समझ जाऊ!
                      गीता पढ़ते पढ़ते एक जगह मेरी नज़र  टिक गई;- अर्जुन ने पूछा -"हे केशव ! समाधी  में स्थिर , स्थिर बुद्धि वाले पुरुष का क्या लक्षण है?"  श्री कृष्ण बोले :-"हे अर्जुन ! जो पुरुष सर्वत्र स्नेह रहित हुआ ,उन-उन शुभ तथा अशुभ  वस्तुओं को प्राप्त होकर न प्रसन्ना होता है और न द्वेष करता है, वह स्थिर वुद्धि वाला है". 
                        भगवन श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया उत्तर पढ़ कर मेरे मन में एक प्रश्न उठा कि - पढ़े-लिखे होशियार अर्जुन को इस साधारण सी बात को समझने में इतनी देर क्यों लगी ? जब कि   हमारे देश के अर्धशिक्षित राजनेताओं को न केवल अच्छी तरह समझ में आया वरन उन्होंने अपने जीवन में पूरी तरह अपनाया है। नेता स्नेह रहित है , उन्हें किसी से प्यार नहीं है। जनता जिए या मरे ,  खाएं या भूखे रहे, उस से वे विचलित नहीं होते। उन्हें कोई गाली दे , उन्हें कोई थप्पड़ मारे या फिर जूता मारे , वे विचलित नहीं होते है। वे स्थिर बुद्धिवाले हैं तभी तो थप्पड़ मारने  या जूते  मारने वाले से कोई द्वेष नहीं करते ,उन्हें माफ़ कर देते हैं। सिर्फ कुर्सी ही उनका प्यारा है और उसके लिए जुते , चप्पल,थप्पड़ कुछ भी खा सकते हैं।
                        आज के नेता सांख्ययोगी हैं। सांख्ययोगी  देखते हुए मानते हैं आँख ने देखा है मैं नहीं , खाते हुए सोचते हैं मुख ने खाया है मैं नहीं , बोलते हुए बोलता है जीभ ने बोला है मैं नहीं । इस प्रकार कोई भी काम का कर्तापन की जिम्मेदारी नहीं लेते । हर घपले में आपाद मस्तक लिप्त होने के वावजूद नेता सबदोष या तो आफिसर के सर डाल देते हैं या भगवान पर। वे जानते हैं कि भगवान ने अर्जुन को बताया था कि "जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करते हैं ,वह पुरुष "जल में  कमल के  पत्ते " की भांति पाप से लिपायमान नहीं होते , इसलिए वे सब कम भगवान पर छोड़ देते है। जनता को अनाज नहीं तो मंत्री जी कहते है कि भगवन ने वर्षा नहीं किया इसलिए फसल नहीं हुआ तो हम क्या करें।.
                   "  हर नेता कहता है वह पाक-साफ है। परन्तु करीब एक तिहाई नेता पर  कोर्ट में मुकदमा चल रहा है। कोई जानवर का चारा खा गया है, कोई सैनिको का कफ़न चुरा लिया है , किसीने  कोयला से अपना मुहँ  काला कर लिया, तो  किसी के गले में टेलीफ़ोन और विजली के तार का फांसी लटक रहा है।  फिर भी  ये सभी निश्चिन्त ,निर्विकार होकर  कुर्सी से चिपके हुए है। क्या इन से ज्यादा कोई स्थिर बुद्धिवाला हो सकता है ? भगवान के मंदिरों में गुप्त दान देकर अपने को पाप मुक्त कर लिया है , ऐसा  वे मानते हैं। ख़ुद तो रिश्वतखोरहैं  , भगवान को भी रिश्वतखोर बनाना चाहता है .   (सर्व कर्मणि त्वदर्पनम  ) कभी सोने का मुकुट चढ़ाया , तो कभी हीरे-मोती। आम जनता का हैसियत तो नही है ऐसा।
                खैर, अर्जुन को बड़ी देर से ये सब बाते समझ आयी , विराट रूप देखने के  वाद। परन्तु हमारे नेता गीता को बिना पढ़े इसका सबसे महत्त्व पूर्ण गूढ़ अर्थ को समझ गए। कौरबो ने चक्रव्यू बनया था अर्जुन को मारने  के लिए ,परन्तु उस चक्रव्यू में निर्दोष, सीधा-साधा अभिमन्यु मारा गया। आज इस कलि युग में हर एक  नेता दुर्योधन है। दुर्योधन तो केवल पांडवो को परेशान करना चाहते थे, उनका ही धन संपत्ति हड़पना कहते थे , परन्तु यहाँ हर नेता न केवल आम जनता के गाढ़ी कमाई को  लूट रहा है,  वरन मौका मिलते ही उनकी जमीन जायदाद हड़प ले रहे है। जनता लाचार है। अभिमन्यु जैसे  उनको भी नेताओं के शोषण के चक्रव्यू से निकलने का रास्ता मालूम नहीं है।  सरकारी खजाने की बात तो सर्व विदित है।  एक के बाद एक स्क्यम (घपला ). इन घपलों में सी .ए .जी के अनुसार सरकारी  खजाने  को अब तक  तीन  सौ अटहत्तर लाख करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। अरे दुर्योधन तो फिर भी  अच्छा था ,  अपने राज खजाने  में डाका नहीं  डालता था , परन्तु नेता अफसरों  को कहते हैं की तुम लोग सरकारी खजाने से छोटी मोटी चोरी  तो कर सकते  हो ,  परन्तु डाका मत डालना , यह अधिकार हमारा  है।
               जन लोकपाल बिल इसी डकैती को रोकने के लिए टीम अन्ना  ने ड्राफ्ट किया था और सरकार के पास भेजा था। उसे पढ़कर दुर्योधनो के हाथ पैर फुल गए और रात की नींद उड़ गई। सभी  सपने में अपने को सलाखे के पीछे देखने लगे। तब सकुनियों एवं दुर्योधनों ने बैठ कर दूसरा ऐसा ड्राफ्ट बनाया जिसमें दुर्योधन शकुनी , सारे कौरव तो बच जाये परन्तु निर्दोष जनता (अभिमन्यु ) मारा जाये। जल्दीबाजी में उसे लोकसभा में पास भी करवा लिया। क्या इन दुर्योधनों के रहते कभी जन लोकपाल बिल आ पायगा ? क्या अभिमन्यु (जनता ) को न्याय मिलेगा ? आप  जरा सोचिए , यदि आपके पास कोई जबाब हो तो हमें  भी बताइए।


कालीपद "प्रसाद "
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आपका स्वागत है ,आभार.