14.12.12

संस्कृति का संक्रमण



                 आज भारतीय संस्कृति संक्रामक  मोड़ पर है।जहाँ नजर डालो वहीँ परिवर्तन दिखाई देता है। कुछ में परिवर्तन हो चूका है और कुछ परिवर्तन के मार्ग में अग्रसर हैं।लोगो के सुबह सोकर उठने से लेकर रात को सो जाने तक जीवन में उपयोग होनेवाले हर चीज ,हर परिस्थिति में परिवर्तन हो रहा है।परिवर्तन होना भी चाहिए क्यकि परिवर्तन ही प्रगति का लक्षण है।भारत में यह परिवर्तन सही दिशा में हो रहा है ,ऐसा कहना अभी अपरिपक्क होगा। लोगों के खान -पान बदल रहे हैं, वेश-भूषा बदल रहे हैं, रहन -सहन बदल रहे हैं, रिश्तों के परिभाषाएँ बदल रही  हैं , व्यव्हार बदल रहे हैं , भाषा में, शब्दों के अर्थों में परिवर्तन हो रहे हैं, शालीन और अश्लील भाषा में अंतर कम हो रहा है।कुछ साल पहले तक किसी लडकी की सुन्दरता की प्रशंसा में कहा जाता था -"खुबसूरत सुशील लड़की है ". यही बात आज यदि किसी टी .वी .आर्टिस्ट या बॉलीवुड के किसी आर्टिस्ट के लिए, या मुंबई  में विदेशी संकृति में लिपटी किसी युवती को  कहा जाय  तो उसे लगेगा की किसी भैया ने उसे गाली दिया है। लेकिन उसके बदले  में उसे यह कहे -"क्या नमकीन ,सेक्सी है " तो उसकी बत्तीसी खिल जाती है।टी .वी के यथार्थ प्रदर्शन (रियलिटी शो ) में तो ऐसे टिपण्णी का भरमार है। इसे प्रस् तुत करने वाले आयोजक,कलाकार ,दर्शक एवं श्रोतागण सभी आनंद ले रहे  हैं।किसी के तरफ से कोई विरोध  नहीं हुआ है और उम्मीद है नहीं ही होगा।अत:यह मान लेना अतिशयोक्ति नहीं होगी  कि  भारतीय समाज अब परिवर्तन  चाहता है।वह भी पश्चिमी शैली में।भारत की पुरानी, दमघोटू , निरर्थक रस्म-रिवाज से लगता है लोग ऊब चुके हैं।भारत में पहले लड़कियां साड़ी या सलवार कुर्ते पहनती थीं। लड़के हाफ पैन्ट या फुल पैन्ट पहनते थे।परन्तु आज लड़के तो फुल पैन्ट में हैं लेकिन लडकियाँ क्वार्टर पैन्ट (हाफ पैन्ट कहना उचित नहीं होगा )में सार्वजनिक मंच पर नजर आती हैं।भारत की लड़कियां आधुनिकता के दौड़ में लडको को पीछे छोड़ दिया।कई  टी .वी .चैनल में एंकरिंग  (सूत्रधार) का कम करती हुई लड़कियां इसी वस्त्र में नजर आती हैं। संस्कृति के तथा कथित रक्षक उसे देखकर आँख मुंद लेते हैं।लेना भी चाहिए ,भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र है। यहाँ बोलने ,खाने-पीने , पहनने ,सभी में आजादी है।मैं तो कहूँगा कि कुछ खाने से या कुछ पहन् लेने से संस्कृति में विकृतियाँ नहीं आती, .विकृतियाँ तो मन में हैं।
            आजाद देश में सब में आजादी होने के वावजूद समाज के ये ठेकेदार  कुछ सामाजिक मामले में अपनी पकड़ कमजोर नहीं करना चाहते। उदहारण के लिए "विवाह ", इसमें कई विकृतियाँ हैं परन्तु उसे दुर करने में देश के कानून भी अक्षम है, क्योंकि कानून को लागू करने वाले भी विकृतियों का रक्षक हैं।ठेकेदारों का कथन है कि वर वधु का गोत्र एक नहीं होना चाहिए ,दूसरा दोनों की जाति एक होना चाहिए। यद्यपि उदारवादी अंतर्जातीय विवाह स्वीकार कर चुके हैं। कुछ वर्षों में अन्तर्जातीय विवाह का दर बढ़ा है फिर भी यह बहुत कम है।अन्तर्जातीय विवाह जब बड़ी तादात में होने लगेगी तब "   दहेज़ प्रथा ,जातीय भेद- भाव  ," आसानी से मिट जायेगा। जाति  के नाम पर चलने वाली राजनीति  के दुकाने भी बंद हो जाएँगी।
            विवाह -परिणय -पाणिग्रहण अर्थात वरऔर वधु जिन्दगी भर एक दुसरे को सुख दू:ख में साथ रहने की प्रतिज्ञा करते है। इस  शुभ कार्य में वधु और वर के दोनों परिवार मिलकर उन्हें अनुमति देते हैं कि वे पति -पत्नी के रूप में जीवन यापन कर सकते हैं और संतान उत्पन्न कर सकते हैं।परिवारों की अनुमति में समाज की अनुमति भी सामिल होती है।इस आयोजन में वर वधु को वस्तुएँ उपहार (दान) में देते है।पुराने ज़माने में गाय जैसी दूध देने वाले जानवर भी दान में दिया जाता था।इसे 'गोदान 'कहते है।परिवर्तन की आधुनिक युग में बेटी को एक वस्तु  मानकर वर को दान कर उसे 'कन्यादान ' कहना उचित नहीं है। कन्या कोई गाय या वस्तु नहीं है जिसे दान में वर को दिया जाय।आज जहाँ नारी पुरुष समानता का स्वर तेज हो रहा है, नारी पुरुष से कंधे से कंध मिलाकर हर क्षेत्र में आगे बढ रही है, क्या ऐसी परिस्थिति में कन्या को वर को दान में देकर उसे कन्यादान कहना नारी जाति को हेय समझना नहीं है ? यहाँ वर को दान में कन्या को क्यों नहीं दिया जाता ? इसे 'वरदान'  या 'पुत्र दान' भी कहा जा सकता है। इसलिए नहीं की यह पुरुष प्रधान समाज है ? देश ने नारी को प्रधान मंत्री एवं राष्ट्रपति के रूप में स्वीकार कर चुके है .फिर इसमें पीछे क्यों? हर बात में पश्चिमी देशों की नक़ल  कर रहे है ,क्या वहाँ 'कन्यादान " जैसा रस्म या शब्द है ?
        'कन्यादान' कहो 'वरदान' या 'पुत्रदान' , मूल में यह 'अनुमति दान'है।दोनों परिवार एवम समाज वर-वधु को साथ साथ रहने और दाम्पत्य  जीवन  शुरू करने की अनुमति प्रदान करता है।यही विवाह है। अत:इस परिवर्तन की युग में नारी जाति को सम्मान देते हुए इसे "अनुमति दान " कहना उचित होगा  'कन्यादान' नहीं।

कालीपद  "प्रसाद "




4 comments:

  1. बहुत अच्छे विचार रखे आपने ।

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  2. सार्थक लेख

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  3. बहुत सारगर्भित आलेख..

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  4. सटीक व सार्थक विचार और लाजवाब अभिवय्क्ति

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